1947 में हुए देश के विभाजन ने लाखों लोगों को बेघर कर दिया। जिन्होंने भारत को चुना, उन्हें अपना घर, जमीन, जायदाद, सब पीछे छोड़कर भागना पड़ा। हालाँकि, इस त्रासदी का यदि कोई सबसे अधिक शिकार हुआ, तो वह था सिंधी समाज। वह समाज, जिसने भारत के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया, और यदि कुछ पास बचा पाए तो बस तन पर चंद कपड़े, मन में विस्थापन का दर्द, जुबान पर सिंधी भाषा और बिखर चुकी अपनी संस्कृति और सभ्यता के कुछ अंश, जिन्हें यह समाज आज भी बटोरने की कोशिश में लगा है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में फैले सिंधियों ने शून्य से शिखर तक का सफर, बेहद शानदार तरीके से तय किया है। सिंधियों के गढ़ कहे जाने वाले उल्हासनगर को आज औद्योगिक नगरी के तौर पर पहचाना जाता है। लेकिन सिंधियों के अस्तित्व की लड़ाई अब भी जारी है, खासकर भाषा, संस्कृति और योगदान को लेकर।
आजादी के कुछ ही वर्षों में अपनी काबिलियत और मेहनत के दम पर, सिंधी समाज के लोगों ने लगभग हर क्षेत्र में सफलता का परचम लहराया। स्कूल, कॉलेज से लेकर अस्पताल, होटल और ट्रांसपोर्ट जैसे क्षेत्रों में योगदान देकर देश की तरक्की के वे सच्चे सारथी बने हैं। हालाँकि, आज इस समाज के सामने अपनी युवा पीढ़ी को सिंधी संस्कृति और सभ्यता से जोड़ने, सिंधी नागरिक अधिकार और मान्यता या अलग राज्य की मांग जैसे कई मुद्दे हैं। लेकिन इन मुद्दों से भी बड़ा मुद्दा है सिंधियों के जनप्रतिनिधि का, जो इस समाज की बात को संसद और सरकार तक पहुँचाए, जहाँ इन विषयों पर चर्चा हो सके और इस समाज के दशकों से चले आ रहे प्रश्नों का सटीक हल निकाला जा सके।
जनप्रतिनिधियों की बात करें, तो इंदौर से सांसद शंकर लालवानी इस दिशा में एक मात्र चेहरा और नाम नज़र आते हैं, जो अपनी विभिन्न सभाओं, गतिविधियों के जरिए मध्यप्रदेश समेत राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे देश के अलग-अलग हिस्सों में बसे सिंधियों को संगठित करने का प्रयास कर रहे हैं। दूसरी तरफ विश्व सिंधी सेवा संगठन, भारत समेत दुनियाभर के सिंधियों का प्रतिनिधित्व कर रहा है, लेकिन देश के भीतर, केंद्रीय राजनीति में सिंधियों का भविष्य बहुत कठिन होता जा रहा है। शुरुआत से ही सिंधियों के संघर्ष को भरपूर सरकारी सहायता न मिलना एक प्रमुख मुद्दा रहा है।
सिंधी को सरकारी भाषा का दर्जा दिए जाने के क्रम में सरकार को 'नेशनल काउंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ सिंधी लैंग्वेज' की स्थापना करने में एक या दो नहीं, बल्कि 30 साल लग गए। राज्य स्तर पर बनी सिंधी अकादमियाँ, आज भी कम बजट की मार झेल रही हैं। आईआईटी मुंबई या दिल्ली यूनिवर्सिटी को छोड़कर, सिंधी भाषा में कोर्सेस की कमी भी साफ देखी जा सकती है। वहीं ऐसे अन्य तमाम मसलों के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रखर नेताओं की जरुरत भी पानी की तरह पारदर्शी है। इसमें भी कोई शक नहीं है कि शंकर लालवानी राजनीतिक धरा के साथ ही, एक तरफा मोर्चा संभाले हुए हैं, लेकिन उनके साथ और उनके बाद कौन?
शुरू से बीजेपी के समर्थक रहे सिंधी समाज को लेकर 2017 में पूर्व उप-प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने अपना दुःख जाहिर किया था, और बिना सिंध प्रान्त के भारत को अधूरा बताया था। सिंधी समाज को आने वाले समय में एक ऐसी विचारधारा को मजबूती से पेश करने वाले लीडर की जरुरत होगी, जो बेखौफ तरीके से सिंध को भारत में मिलाने की बात भी करे और सिंधियों के हक की लड़ाई भी लड़े।