शरीर की बीमारियों का इलाज करवा लोगे, मन की बीमारी का क्या?? -अतुल मलिकराम


कई दिनों से अनिद्रा का शिकार मैं जब डॉक्टर की सलाह लेने पहुँचा, तो शरीर की अंदरूनी खामियों का पता लगाने के लिए उसने मुझे रक्त संबंधित कुछ जाँचे कराने की सलाह दी। सहमा हुआ-सा मैं जब वह खर्रे जैसी दिखने वाली वस्तु को लेकर पैथोलॉजी पहुँचा, तो मन में एक ही बात तांडव कर रही थी कि कहीं मेरा शरीर किसी बड़ी बीमारी के जाल में कैद तो नहीं है। शरीर से ढेर सारा खून चूस लेने के बाद वह छँटाक भर की सुई मानों किसी तलवार की सी नज़र आ रही थी। उस दस एमएल खून ने पिछले महीने मेरे द्वारा किए गए रक्तदान की याद दिला दी। अब तो मैं खुद को पहले से भी अधिक कमजोर महसूस कर रहा था। वहाँ से निकलकर रास्ते में एक गिलास मौसंबी का जूस पीने के बाद चक्कर कुछ कम हुए। 


शाम चार बजे रिपोर्ट के इंतज़ार में दिन कुछ यूँ कटा, जैसे मैं 1980 की फिल्म के "कमरे से बरामदे तक" का घंटों का लम्बा सफर तय कर आया हूँ। घड़ी के काँटों के आगे बढ़ने के साथ ही मेरे दिल की धड़कन जैसे सौ किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से भागे जा रही थी। बेचैन मन के साथ रिपोर्ट लेकर सीधा डॉक्टर के पास गया। कुछ छोटी-मोटी बिमारियों के लिए दवाइयाँ लिखकर उन्होंने मुझे चिंता न करने की सलाह दी। मैं बाहर तो आ गया, लेकिन संतुष्ट नहीं था। कुछ तो था जो मेरे भीतर ठीक नहीं था। रात भर इस चिंता में सो न सका। गहन विचार के बाद मैंने पाया कि मैं एक ऐसी बीमारी से जूझ रहा हूँ, जिसका इलाज शायद डॉक्टर कर ही न पाए। 


मेरे भीतर व्यक्तित्व की कमी होने लगी है। अन्य लोगों से बात करने का मेरा लहज़ा बदलने लगा है। मेरे भीतर इस बात का गुरुर आने लगा है कि मैं इंसान हूँ। मैं खुद के बजाए दुनिया में गलतियाँ ढूंढने लगा हूँ। मैं लोगों में भेदभाव करने लगा हूँ। मुझे इस बात से फर्क पड़ना बंद हो गया है कि सामने वाले पर मेरी बातों का क्या असर होगा। हर छोटी-बड़ी बात पर मन अब शकुनि जैसे षड्यंत्र रचने लगा है। मैं बड़ा, वह छोटा, मैं क्यों झुकूँ? मैं सही, वह गलत, मैं माफी क्यों माँगू? हर छोटी-सी बात पर गरजते बादलों सा क्रोध, हर पल मेरे भीतर के उस व्यक्ति को खत्म करता जा रहा है, जिसे माता-पिता ने संस्कार और असीम स्नेह से बनाया है। उन्होंने तो हमेशा से ही सभी का भला करने की सीख दी है न। इन तमाम बातों का ढूंढने पर भी मुझे कोई कारण नहीं मिला, कि मैं इन सबका आदी आखिर क्यों बनता जा रहा हूँ? मैं क्यों इस वजन को अपने साथ ढोए जा रहा हूँ? 


नकारात्मकता से भरी इस गठरी को बहुत ढो लिया, यह उपयुक्त समय है इसे किनारे करके आगे बढ़ने का। हमें समझना ही होगा कि इस बीमारी का इलाज दुनिया का कोई भी डॉक्टर नहीं कर सकता। इससे निजात पाने के लिए हम खुद अपने डॉक्टर हैं, हमें अपना इलाज खुद ही करना होगा। जब इस दुनिया से कुछ भी वापिस ले जाने की अनुमति हमें नहीं है, तो नकारात्मकता भी आपसे साथ क्यों ले जाएँ? लेकर जाना ही है, तो हमारा व्यक्तित्व लेकर जाएँगे न, ताकि हम न भी रहें, तो हमारी बातें रहें, हमारी यादें रहें..

Popular posts
मिलिए एंडटीवी के 'हप्पू की उलटन पलटन' की नई दबंग दुल्हनिया 'राजेश' उर्फ ​​गीतांजलि मिश्रा से!
Image
एण्डटीवी की नई प्रस्तुति ‘अटल‘ अटल बिहारी वाजपेयी के बचपन की अनकही कहानियों का होगा विवरण्
Image
"मैं अपने किरदार से गहराई से जुड़ा हूं क्योंकि उसी की ही तरह मैं भी कम शब्दों में बहुत कुछ कह देता हूं" ज़ी थिएटर के टेलीप्ले 'तदबीर' में वे एक पूर्व सेना अधिकारी की भूमिका निभा रहे हैं
Image
येशु एक अनकही और अनसुनी कहानी है, जिसे पहली बार हिंदी के सामान्य मनोरंजन चैनल पर दिखाया जा रहा है‘‘- विवान शाह
Image
Cadbury Dairy Milk Fans create over 1 million versions of their Favourite Chocolate through Madbury 2020
Image